- रचयता बाबूजी (पं कन्हैया लाल मिश्र)
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अम्मा (श्रीमति गायत्री देवी) के निधन पर – पृष्ट १
(क)
(i)
जिस सदाचार से बनते जग के नाते,
जिस शील विनय से शत्रु मित्र बन जाते,
जो त्याग दूसरों के दुःख को अपनाता,
जो सरल स्नेह घर-घर सुख दीप जलाता,* बदल के लिखे
* धरती पर मानव का पथ सुगम बनाता,
सबको ले अपने हाथों जगत निर्माता,
रच दी मेरी गायत्री, विश्व विधाता।
(ii)
जिस मधु के मद से जग को प्रकृति नचाती,
जिस आकर्षण से सृजन शक्ति बल पाती,
जिस हाव लोच से स-र-ग-म बन पाता है,
जिस कोमलता से कुलिश पिघल जाता है,
सबको बटोर, विधि ने साँचे में डाला,
मेरी विमोहिनी, नई मेनका ढाला।
(iii)
मैंने सोचा था मेरे लिये बनी है,
अविवेक ढिठाई में समझा अपनी है,
था कुमुद गंध को चाहा बंदी करना,
झरने कलरव को मुठ्ठी बीच पकड़ना,
चाँदनी हंसी को पास खीच बिठलाना,
आकाश जान्हवी को सहचरी बनाना,
पर फेन बबूले से निर्मित सपना था,
वह इन्द्र धनुष पर नभ सोपान बना था।
(iv)
मेरे तड़ाग में एक कुमुदिनी फूली,
वह राज अकेला छोड़, कहाँ जा भूली,
मेरे जीवन को सुरभित कर, चमका कर,
वह ज्योति लुप्त हो गई, ज्योति फैलाकर।
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अम्मा (श्रीमति गायत्री देवी) के निधन पर – पृष्ट २
(v)
मेरे उर में सिंहासन सुघर बना था,
क्यों समझा उसने नही, वही अपना था,
वह रंग भरा घर अपना, शिशु भी अपने,
मेरे दुलार, जितने थे सुख के सपने,
सब छोड़ गई जीवन की मुखरित बेला,
सुनसान हो गई, मैँ रह गया अकेला।
(vi)
सबके काटो में फूल कभी खिल जाते,
दुःख की रजनी में सुख जुगनू आ जाते,
जलता बन भी, धीरे - धीरे, बुझ जाता,
पतझड़ बीते, उसमे बसंत छा जाता,
तपते निदाध में वन भी थी जल जाती,
वर्ष आ, बूँदें छहर - छहर बरसाती।
(vii)
बीती विपत्ति की रात सवेरा आता,
बंदी का कारावास काल कट जाता,
रोगी की पीड़ित शैया को सहलाती,
ऊषा की लाली आकर, मन बहलाती,
मिलता उपचार-हीन को काल सहारा,
मर कर विजयी होता जीवन का हारा।
(viii)
पर मेरी पीड़ा सतत और अविचल है,
ध्रुव टेक लगा कर, उर में भरी अटल है,
ममता विहीन है मेरा भाग्य विधाता,
सूनेपन ने जोड़ा अनंत से नाता,
गतिहीन निशा में होगा अब न सवेरा,
अब जग न सकेगा सोया उपवन मेरा।
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अम्मा (श्रीमति गायत्री देवी) के निधन पर – पृष्ट ३
(ix)
मेरे घर की थी अपनी शान अनूठी,
मुँह मोड़, भाग निकली वह मुझसे रूठी,
जिस घर को गुंजित करती शिशु की किलकारी,
रंग से भर देती होली की पिचकारी,
वह ज्योति-विहीन धरा पर आज पडा है,
नत, प्राणहीन, खंडहर सा विलग खड़ा है।
(x)
मैंने विभोर, हो हाँथ हाँथ पर डाले,
देखी अपनी निधि पड़ी नियति के पाले,
अरि पर भी मैंने हाँथ कभी न उठाया,
अनजाने मे भी, मन उसका न दुखाया,
तब इतनी गहरी चोट कहाँ से आयी!
क्यों क्रूर नियति ने नई क्रूरता पाई।
(xi)
सुख के सपने अब कभी न आ पायेगे,
आशा प्रसून अब कभी न खिल पायेंगे,
नित की उलझन तो नित रहेगी घेरे,
पर दिल की आग निकल न सकेगी मेरे,
जलता दिल आसू से भी बुझ न सकेगा,
अब कभी न रंग भरा जीवन लौटेगा।
(xii)
सोचा था मन मंदिर को सुघर बना कर,
पूजूँगा तुमको, प्रतिमा सी बिठला कर,
तब मधुर स्नेह से डब-डब दीप जलेगा,
मेरा घर सुख किरणों से जगमग होगा,
दिन में मुझको श्रम से थकान आयेगी,
संध्या होते, तुमको छू, मिट जायेगी।
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अम्मा (श्रीमति गायत्री देवी) के निधन पर – पृष्ट ४
(xiii)
पावस रजनी में जब वर्षा उमड़ेगी,
बिजली रह-रह, जब चमक-चमक कड़केगी,
ऐसे में डर कर चिहुक कौन उठेगी,
तब डर कर मेरे पास कौन आयेगी,
बाहों में आकर उर में छिप जायेगी।
(xiv)
जब मेघ, ओस कण बन, नभ से उतरेंगे,
झलझल मोती के हार विटप पहनेगे,
जब शरद पूर्णिमा की विभावरी आकर,
बरसायेगी किरणों की सुधा धरा पर,
जब रत्ना जटित आकाश, दिगंत उजाला,
कर पहनायेगा नक्षत्रों की माला।
(xv)
उस रजत रात्रि में सुरभित कुमुद कली सी,
आतुर गति से आयेगी श्वेत परी सी,
सुरभित उपवन से, सुमन पराग चुरा कर,
रजनी गंधा कौन गंध को लाकर,
रजनी वायु झकोरों से भर देगी,
आँगन नव सौरभ से सुरभित कर देगी!
(xvi)
जब शिशिर रात्रि में नव तुषार आएगा,
हिम से आलंगित शीत पवन लाएगा,
जब बंद किवाड़ों के नीचे से आकर,
उर शीत कपायेगी, आवरण समा कर,
तब सिहर-सिहर कर कौन पास आयेगी?
नीरव निशि में, आ, उर जयमाल बनेगी?
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अम्मा (श्रीमति गायत्री देवी) के निधन पर – पृष्ट ५
अब अपने रंग से रजनी कौन रंगेगी?
निशि का नीरव, मधु गायन से भर देगी।
(xvii)
सुषमा बसंत लायेगी कोमल बोली,
आएगा ले ऋतुपति ले सुमनों की झोली,
रसमाती, अमराई, झुक-झुक, झूलेगी,
बेले उपवन में उमंग उमंग फूलेगी,
तब हरी दूब पर नक्षत्रों के नीचे,
आ कर सोयेगा, बाहर कौन बगीचे?
(xviii)
उस असित पटल पर सित केशों में विलसी,
श्यामल घन भीतर बैठी ऊषा किरण सी,
तब नव प्रभात से ओस नहाए बेले,
डालो से चुन कर अपने कर अंजली ले,
आ, नींद भरे पलकों पर सुमन गिरा कर,
कोमल हाथों मेरा ललाट सहलाकर,
अब कौन जगायेगा आ मुझे सवेरे,
अब कौन हँसाएगा उपवन को मेरे।
(xix)
बीता चलता जीवन था सुख का नयना,
उससे भी बढाकर था भविष्य का सपना,
पर बीत गए जितने भी थे सुख के सपने,
अब बदल गए जितने जीवन के नपने,
अब तो अतीत की सुध बिसरानी होगी,
बीती घड़ियों की याद भुलानी होगी।
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अम्मा (श्रीमति गायत्री देवी) के निधन पर – पृष्ट ६
(ख)
(i)
जिसे बनाकर परछाई रखने का देखा था सपना,
था जिसको पतवार बनाकर जीवन सिंधु पार करना,
चिर वियोग में वह अविचल दीवार पार जा बैठ गई,
क्रूर नियति के अट्टहास में, मेरी चाह विलीन हुई।
(ii)
बाहों बीच छिपाकर जिसको, रखने की थी अभिलाषा,
किशलय सेज सजा कर उर में, जिसे बिठाने की आशा,
निवसित सा, अपने घर में, मैं परदेसी आज बना,
जीवन अब उपचार-हीना जीवन का अंतिम साँस बना।
(iii)
इस शरीर की संध्या में अब एक चाह बस बची रही,
घोर तिमिर नौराश्य गगन में एक ज्योति अवशेष रही,
उस अनंत के अंधकार के निश्वासों से दूर रहो,
मेरी अंतर जग की प्रेयसी, शांति और सुख पूर रहो।
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